Monday, December 13, 2010

वक़्त

दरिया सा बहता ये वक़्त निकल जाता है , देखते ही देखते हाथों से वक़्त फिसल जाता है
सुबह सवेरे उठने का मन नहीं होता ,चादर सर से हटती नहीं और सूरज चढ़ जाता है
देखते ही देखते सुबह का वक़्त गुज़र जाता है

अलसभरी दोपहरी में फिर अलसाई नज़रें है , आँखों में फिर से नींद को ललचाई नज़रें है
इसे में तो ये दिन भी यु ही कट जाता है , सूरज अब भी सर पर हे और वक़्त गुज़र जाता है

कुछ दिन निकला कुछ शाम आई कुछ ठंडक अपने संग लाइ
कुछ न किया इस दिन में भी जाने फिर थकान क्यों आई
फिर मन ने मेरे मुझसे ये कहा , बस आज काम तो बहुत हुआ
देखा फिर की सूरज भी अपनी जगह से हट जाता है , शाम का ये वक़्त भी यु ही कट जाता है
लो सूरज डूब चूका ,अब चाँद निकल आया है , रात के अँधेरे में तारों का संसार नज़र आया है
अब तो फिर से सोने का वक़्त करीब आया है
यु ही रात निकल जाती है यु ही वक़्त गुज़र जाता है

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