Wednesday, October 31, 2012

तस्वीरें


दिल्ली में तानाशाहों की मुस्काती
बच्चो को, बूढों  को सताती
मिलने को तड़पते हीर और रांझे की
मलहम से गहरे घावों को छुपाती
आज़ादी के रंगों की सारी तस्वीरें |

जंग के मैदां से सूनी मांगों की 
बुझने से पहले दीपक की लौ की
भूखे बच्चों की रोती-बिलखती
गरीबों के मुंह  से निवाला छिनती
आज़ादी के रंगों की सारी तस्वीरें |

मूंदी आँखों से रस्म निभाती 
सीता के दर्द पे मंद मंद मुस्काती
किसानों से खूं से सिंची फसलों की
तूफां में उड़ते घर के छज्जों की 
आज़ादी के रंगों की सारी तस्वीरें |

गुलामी के दलदल में घुटती साँसों की 
दूजे के ज़ख्मों की खुशियाँ मनाती
खुद की परछाई से घबराती
मिट्टी के सीने पे लकीरें बनाती 
आज़ादी के रंगों की सारी तस्वीरें |

आज़ादी के भरम की तस्वीरें 
गाती, रोती, रुलाती तस्वीरें 
कुछ कहती, कुछ छुपाती तस्वीरें 

तस्वीरें, अपने जहाँ की तस्वीरें 
आज़ादी के लिफाफे में लिपटी ज़ंजीरें |

अंकिता
३० अक्टूबर २०१२

Friday, May 25, 2012

डर

सब  रीति रिवाज़ बनाए मैंने 
और बदले पल पल 
हर पल जैसी थी सहूलियत 
फिर इसमें शामिल किए कुछ अंधविश्वास 
थोड़ी ली कट्टरता, और थोड़ा भेदभाव 
थोडा झूठ, थोड़ी इर्ष्या 
कुछ नहीं था कुछ भी 
जो भी था, वो था मेरा डर 

एक दिन किसी ने कहा 
इस पेड़ को काट दो 
जड़ से इसे मिटा दो 
है इसमें वास्तु दोष 
(मेरे डर का नया नामकरण)
घर के सामने इसका होना 
है वंश वृद्धि में अवरोधक 
जान तो थी उस पेड़ में 
लेकिन था बेजुबान 
उसे काट फेका कुल्हाड़ी से 
बड़ा मज़बूत था उसका हत्था
लकड़ी का जो बना था

फिर एक दिन किसी ने 
घर में लड़की का होना भी समझा वैसा ही ,
जैसा घर के बाहर होना उस पेड़ का 
और लड़की के साथ भी हुआ वही
जो मैंने किया था पेड़ के साथ 

-अंकिता
१३ जून , २०१२

Tuesday, February 21, 2012

डायरी


मेरी डायरी ,
और इसके अपारदर्शी पन्ने आईना बन जाते हैं
कलम जब चलती है इनपर
हाथों के नहीं, बल्कि रूह के इशारों पर |
जब परत दर परत लिबास हटते जाते हैं
देखती नहीं दुनिया को निगाहें मेरी
बस मुझे तलाशती हैं |
भीड़ का घेरा तो हर वक़्त बना रहता है
सुकून के बस कुछ लम्हे मिलते हैं
खुद से मुलाक़ात में गुजरते हैं, जो पल तुम्हारे संग ठहरते हैं |
बढ़ती मुलाकातें हमारी, मेरी खुद से पहचान बढ़ाती
तुम्हारे पन्नो से गुफ्तगू करना
बड़ा अच्छा लगता है खुद से मिलना ||

अंकिता पाठक
२१ फरवरी २०१२