Saturday, May 30, 2020

~ ~ ईच्छा ~ ~

आज एक इच्छा जगी, एकदम नयी सी
उसमे रंग भरने का स्वप्न लेकर, मैं उठी
देहरी तक पहुंची ही थी की एक काला विषधर
दरवाज़े पर कुण्डी की तरह लिपटा था |

भय से मैं पलटकर, बिस्तर पर जा बैठी
सोचा कुछ देर आराम कर लूँ
दो घड़ी आँख लग जाए ,
और शायद वो सर्प कुण्डी से हट जाए |

स्वप्न में वो इच्छा मूर्त रूप में मेरे सामने खड़ी  थी
ख़ुशी से उछलकर उसे छूने को मैंने हाथ बढ़ाया,
छू पाती उस से पहले हमारे बीच उसी काले सर्प को फन फैलाया पाया |

पसीने से तरबतर, मैं उठी घबराकर
जाने कैसा दुःस्वप्न
कुछ समय बाद वो इच्छा धुंधली हो गयी
मेरे स्वप्न और कुण्डी पर बैठा वो सर्प  धीरे धीरे चला गया  |

उस दिन से वो इच्छा, मेरे घर के एक कोने में दुबक कर ,
आँख मींचे, चादर ओढ़े , पैर  सिमेटे सो गयी |

अब जब भी कोई इच्छा जगती है,
जिसके लिए देहलीज पार कर जाना होता है
तो हर बार वो सर्प जाने कहा से आकर कुण्डी पर लिपट जाता है,
और फिर मेरे स्वप्न में आकर डराता है |

फिर एक दिन मेरा घर सोती हुई इच्छाओं से भर गया |
मेरे चलने की जगह ही नहीं बची, तब झुंझलाकर मैं उठी |
फिर वही दरवाज़ा , वही कुण्डी और वो सर्प |

मेरा भय तो अब भी साथ ही चल रहा था ,
लेकिन इस बार वापस जाने की जगह ही नहीं बची थी ,
क्योकि उन सोती हुई इच्छाओं ने मेरे घर पर अपना डेरा बढ़ा लिया था |

काँपते  पैरो से मै  दरवाज़े की ओर बढ़ी
पसीने में तर बतर, डर  के मारे मेरी घिग्घी बंध |

वहाँ पहुंचकर खुद को छला सा पाती हूँ
सर्प के स्थान पर रस्सी को पाती हूँ |
वो रस्सी, जो धूल खाकर मोटी हुई, जाने कब से वहाँ लटकी है |

उस स्वनिर्मित भय की जैसे ही परत हटी ,
वो रस्सी  मैंने दरवाज़े से हटा फेंकी  | 

दरवाज़ा खुलते ही, एक एक कर उन इच्छाओ ने आँखें खोली, चादर समेटी ,
कोई मेरे घर के आँगन में मिट्टी , तो कोई पौधा बन , सींचने के इंतज़ार में मुस्कुरा उठी |

अब भी जब कोई ऐसी इच्छा होती है, जिसके लिए कोई देहलीज , कोई मुंडेर
या किसी संकरी गली को लांघकर जाना होता है
वो सर्प फन फैलाये अब भी मिलता है
बस अब मैं कोशिश करती हूँ की  साहस बटोर कर उस सर्प के पास जाऊं
और पता करू की असल में ये सर्प है
या फिर अधूरी इच्छाओं की गांठों से बंधी पड़ी कोई रस्सी |
-अंकिता

Sunday, May 24, 2020

टुकड़ा

 हाथ से वो टुकड़ा फिसला , सोचा खो गया
लेकिन वो तो दबा था, चाँद की परछाई में छिपा था |

सोचा सुबह आराम से ढूंढूंगी मिल जाएगा
पर नहीं मिला, अमावस की रात बड़ी लम्बी चली |

शायद वो परछाई का पर्दा टुकड़े पर नहीं आँखों पर पड़ा था,
क्योंकि ध्यान से देखा तो टुकड़ा अपनी जगह पर स्थिर खड़ा था |

वो टुकड़ा तो खुद में ही पूरा था,
जिसे चाँद समझा, वो तो सूरज था |

-अंकिता