Sunday, May 24, 2020

टुकड़ा

 हाथ से वो टुकड़ा फिसला , सोचा खो गया
लेकिन वो तो दबा था, चाँद की परछाई में छिपा था |

सोचा सुबह आराम से ढूंढूंगी मिल जाएगा
पर नहीं मिला, अमावस की रात बड़ी लम्बी चली |

शायद वो परछाई का पर्दा टुकड़े पर नहीं आँखों पर पड़ा था,
क्योंकि ध्यान से देखा तो टुकड़ा अपनी जगह पर स्थिर खड़ा था |

वो टुकड़ा तो खुद में ही पूरा था,
जिसे चाँद समझा, वो तो सूरज था |

-अंकिता 

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