Wednesday, April 27, 2011

मन



मन का सघन वन 
विचारों की किरण गतिवान प्रतिपल
कभी घनत्व को चीरकर 
टकराती पत्थरों से 
कभी गहराई से खोज लाती 
बहुमूल्य रत्न

मस्तिष्क की संकरी  गलियों से 
गुजरकर पगडंडियों से 
सुझाती जाती कभी कठिन लक्ष्य का 
सरलतम हल 

पड़ती सुनसान मार्ग पर 
छूती अँधेरे  कोनों को 
एकांत क्षणों में कर जाती झंकृत 
मौन  संवेदनाओं के तार 

मन का सघन वन 
विश्राम के पलों में भी
गतिशील निरंतर 
बनकर स्वप्न

-अंकिता