Saturday, August 31, 2013

मन मगन

विचारों को कर स्वतंत्र 
सुर ताल पर इनकी 
नाचा मन मगन

खोकर खुद को 
पाया खुद को 
हुआ प्रसन्न  
नाचा मन मगन

-अंकिता
३० अगस्त , २०१३

दुविधा

खुश तो हूँ मैं , उद्घाटन है आज 
बन जो गया है, नाना नानी का मकान 
मन में है दुविधा है, हज़ारों हैं काम 
अपनी धुन में मगन, बतिया रहे हैं मेहमान ।

सोचती हूँ 
खाने के लिए, डिस्पोजेबल मटेरियल लाऊं ?
या टेंट हाउस से थाली कटोरी, चम्मच, मंगवाऊ ? 
दुविधा है 
क्योकि घर के पीछे है प्लास्टिक की थैलियों की रो 
और नल में पानी का कम है फ्लो । 

नानाजी रोज़ पेपर पर लिखते हैं राम नाम 
इसे मंदिर में जमा कराने का सौपा  है मुझे काम 
दुविधा है 
इसे मंदिर में सहेज कर रख आऊं ?
या बांध कर कथा का प्रसाद, इसे सब में बँटवाऊ ?

घर में हैं चूहे, जो करते हैं परेशान 
नानी ने की है , रैट किल की डिमांड 
दुविधा है 
क्योंकि मैं लाई, और मुझसे ही रखवाया ?
पूछा ऐसा क्यों , तो जीव हत्या को पाप बताया 
ठीक है थोड़ी दुविधा के साथ 
मैंने भी ये पाप अपने सर चढ़ाया 
रैट  किल मंदिर के नीचे रख 
भगवान  के आगे , दीपक जलाया । 

- अंकिता 
 १४ फ़रवरी, २०११

Thursday, August 8, 2013

दो रास्ते

सदियों पहले की आरम्भ
यात्रा  अहम्  और विनय ने
सत्य की खोज में

चुने मार्ग दोनों ने दो
लक्ष्यप्राप्ति को अपने

अहम् ने चुना प्रवृत्ति मार्ग
उसपर बढ़ा वो लगातार
उसकी गति थी बड़ी तेज़
होने को केंद्र से एकसार
केंद्र में एक बिन्दु है
उसकी प्राप्तिध्येय  है
लक्ष्य से एकाकी होने को
उसने हर साथी को छोड़ा
मित्रों से हर नाता तोडा
किन्तु जो केंद्र है
वो बिन्दु हैअतिसुश्म है
हर बढ़ते कदम के साथ
होता है अहम् को ज्ञात
ये मार्ग है स्वार्थ का
यहाँ विचारों का केंद्र बिन्दु हूँ
मैं स्वयंमेरा अहम्
हर पलहर बढ़ता कदम
मेरे अहम् को तुष्ट करता
(स्वार्थ को संतुष्ट करता )
अंत में केंद्र को पाकर
उसे होता है आभास
केंद्र (बिन्दु ) की होती यही परिभाषा
इसको नहीं जा सकता मापा
संकुचन इसका स्वभाव है
इस मार्ग पर इसकी चाह है
इसे पाने की लालसा में
सबको छोड़ चलता अहम्
और अंत में इस संकुचन में
स्वयं समा जाता है
ना कोई प्रेयसी
ना किसी प्रीतम को पाता है
और केंद्र पर पहुँच
होता है जिससे वो एकाकी
वो है स्वयं
उसका अहम् अहम् अहम् |

विनय ने चुना मार्ग
ठीक उलट इसका
अपने स्थान से वो दूर जाता
विचारों की परिधि बढाता
घूमते तीर सा
अपनी सीमा बढाता
केंद्र से दूर जाता
हर पलहर कदम
मोह जाल काटता
विचारों का केंद्र स्वयं को ना  बनाता
हर  पल अपना स्वार्थ त्यागता
(अपने अहम् को पल पल मारता )
प्रेम बाटता
मित्र बढाता
और जितना निवृत्ति मार्ग पर बढ़ता
उतना स्वयं को तुष्ट पाता
जितना केंद्र से दूर  जाता
उतना अधिक आनंद पाता
गाँठ एक एक कर खुल जाती
भ्रम जाल कटता जाता
मोहपाश हटता जाता
अन्धकार के बादल फटते
उजियारे का सूरज पाता
इच्छाएँ अब विवश ना करती
डर  को अपने निकट ना पाता
इस निवृत्ति मार्ग पर अपने
हर पल बढ़ता , प्रकाशपुंज पाता
सही गलत
सच झूठ
और भले बुरे में  भेद  पाता
हर स्थिति में समरसता पाता

अब भी वो चलता जा रहा है
विनय वृत्त को बढ़ा रहा है
केंद्र (अहम्`) से दूर  जा रहा है

अब उसे किसी की खोज नहीं
उसका अब सत्य यही |

-अंकिता 
८ अगस्त २०१३

Saturday, August 3, 2013

ख़ुशी

क्यों आँखें  गढ़ाये 
शून्य को तू तकता 
किसी चमत्कार का 
इंतज़ार करता 

और केंद्र में 
विचारों के 
रख परेशानियां अपनी 
और अधिक परेशान होता 

इतना ही अगर करना है 
केन्द्रित ध्यान को 
तो क्यों ना केंद्र में रखी  
अपनी रूचि हो 

उठ हो खड़ा
चल उस दिशा 
जो दे ख़ुशी
दे जिन्दगी 

इस दुनिया में रहकर दौड़ना 
इतना ही अगर ज़रूरी है
तो दौड़ वहां 
उस ओर जहाँ 
तेरी ख़ुशी है  :)

- अंकिता 
३ अगस्त, २० १ ३