Saturday, September 17, 2011

सलाखें





सलाखों के पीछे कैद
सज़ा है उम्रकैद
अपनी जंज़ीरों में खुद ही जकड़ता
सांस लेने की
सांस छोड़ने की
गुंज़ाइश को कम करता
हैं अपने सपने
मंज़िल की भी है खबर रखता
लेकिन
सफ़र से डरता
रास्ते को घूरता
कोल्हू के बैल सा
औरों के इशारों पर घूमता
जो चाहत नहीं है
उसे पाने के लिए दौड़ता
भीड़ में शामिल होकर
खुद को खोता
भीड़ में चलता
भीड़ में  उठता
भीड़ में ही सोता
गुम होकर फिर
आसपास देखता
कौतुहल समेटता
हर पल डरता
पल पल मरता
कभी कभी वीर सा
साहस बटोरता
कदम बढाने के लिए
कदम उठाता
लेकिन सशंकित
मन में डर किये अंकित
कदम बढाता नहीं
दुबारा वही रखता
खुद के लिए, खुद ही
मेहनत खूब करता
अपने आसपास, अपने लिए
अदृश्य  जाल बुनता
सबकुछ अपने लिए
खुद से चुनता
हर छोटे बदलाव से बचता
आज़ाद होने की है चाहत
लेकिन आजादी से डरता 



-अंकिता

१७ सितम्बर २०११

Monday, September 12, 2011

Untitled

चंद नतीजे तकदीर नहीं होते
फासले हमेशा हकीकत  नहीं होते
जीने के बहाने कई सारे होते है
बहानों में जिन्दगी बसर नहीं करते

गुज़र गया जो उसे जाने भी दो
रास्ते यूँ ही ख़तम नहीं होते
पल भर के अँधेरे से सहम के
आने वाले उजालो को रोका नहीं करते

उम्मीदों के हसीं दीयों पर
तूफ़ान अक्सर बेअसर होते हैं
कागज़ की कश्ती जो डूबे कभी
तो हवाओं से सवाल किया नहीं करते 

Friday, September 2, 2011

रीतियाँ

शुरू हुई थी कुछ रीतियाँ
लोगों के मिलने मिलाने के लिए

सोचा होगा जुड़ेंगे एक जगह
साथ उत्सव मानाने के लिए

आज कल तो हर गली में
सब अलग-अलग इकठ्ठे होते हैं

अलग-अलग आती हैं आवाजें
सामूहिक शोर बन जाने के लिए

गुम हो चला है उद्देश्य कहीं
जो था एकता बढाने के लिए 



-अंकिता
२ सितम्बर २०११