Wednesday, March 16, 2011

मंच




मैं देखती हूँ, दूर से
वो बहुत उंचा है
मैं सुनती हूँ वक्ता को
अपनी बात कहते हुए

भीड़ है , मंच के आगे
मंचासीन खुश है , सोचकर
काफी है मेरे चाहने वाले
लेकिन कोई भी किसी को
सुनना नहीं चाहता

वो भीड़ लगी है उनकी
जिनकी तमन्ना है
मंच पर चढ़
अपनी बात रखने की
क्योकि मंच अकेला नहीं
अपने साथ कुर्सियों को
समेटे खड़ा है
मैं अंतिम पंक्ति में खड़ी
उनकी बात, समझने की
कोशिश कर रही हूँ


-अंकिता

Saturday, March 12, 2011

वृक्ष




वृक्ष हूँ , खड़ा हूँ
थामे हुए शाखाओं को
हरी पत्तियां , प्रस्फुटित होते फूल
हवाओं से हिलते लहरातें है
रोके हुए हूँ मिट्टी को
जड़ों से बांधे हुए हूँ

वृक्ष हूँ
सूरज की आँखों में आँखे डालकर देखता हूँ
उसकी तीखी किरणें
जो धूप भी हैं
मेरी हरी पत्तियों में समाकर
कभी फल कभी फूल कभी छाँव में बदल जाती हैं

वृक्ष हूँ
सुनता हूँ , सुबह शाम
चिड़ियों का कलरव
देखता हूँ
उन्हें अपना घोंसला बनाते
बच्चों के लिए दाना पानी लाते
शाम को मेरी डाली पर बैठ
सुस्ताते ,अपनी थकान मिटाते

वृक्ष हूँ
कुल्हाड़ी को देखता हूँ
अपनी शाखाएं काटते हुए
हरी पत्त्तियों को गिरकर
रंग बदलते हुए
लेकिन मेरा तना
भूरा था , अब भी भूरा है
पहले खड़ा था , शाखाएं और घोंसलें थामे हुए
अब जल रहा है ,
घर में बनकर ईंधन
कोने में खड़ा हे फर्नीचर
गोद में रखा है भूरा पटिया
किताबे समेटे हुए
खिड़की ,दरवाज़े की भूरी चौखट
और कुल्हाड़ी का हत्था भी
ऐसा ही भूरा है


-अंकिता