Monday, December 13, 2010

नफरत

चाहे तेरा घर जले, चाहे मेरा घर जले , आखिर में राख का ढेर ही लगता है
तेरी हो बेटी , या मेरा हो बेटा, मरने वाला कोई इंसान ही होता है
दिल तो कही ना कही तेरा भी रोता है, खुदा भी तुझसे यही कहता है
आदमी है आदमी से नफरत क्यों करता है

कोई हो मजहब , या कोई हो मुल्क , आखिर में हर कोई इश्वर से मिलता है
सूरज की तीखी किरणों के आगे , माथे में बल तो तेरे भी पड़ता है
तेरे दिल में छुपा इंसान भी तुझसे ,कभी ना कभी सवाल तो करता है
आदमी है , आदमी से नफरत क्यों करता है

चाहे दागे तू गोली या बम तू लगा दे , आखिर में तो किसी का खून ही बहता है
बिना रोटी के रगों में खून, ना तेरे दौड़ता है ना मेरे बहता है
तू भी तो कुछ कुछ मेरी तरह है, तो क्यों इंसानियत का दुश्मन बना फिरता है
हर दिन क्यों कत्लेआम करता है
आदमी है आदमी से नफरत क्यों करता है

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