सन्ध्याकाल
नीले से काला हुआ आकाश
ना तारे, ना चाँद का उजाला
बादलों ने किया है
नभ पर अधिकार
पानी की बौछार में
भीगता हुआ मेरे घर का आँगन
गहराया प्राकृतिक अन्धकार
ईधर चंद बूंदों का आगमन
और कृत्रिम बिजली भी बंद
मैं , मेरी किताब , लालटेन
और दाहिने हाथ की ओर
घर की दीवार पर लटकता आईना
चारों ओर तिमिर करता हुआ राज
और आईने में दिखाई दिया
प्रतिबिम्ब केवल
मेरा
मैं चौंकी और घबराई
मुझ जैसी कोई मेरे ही घर में
बैठी है कौन दीवार से सटकर
मैं बैठी थी बन
प्रकाश मार्ग में अवरोधक
फलस्वरूप
मेरे मन में छुपा काला डर
कुछ और बढ गया
और मुझे डरा गया
मेरा ही प्रतिबिम्ब
- अंकिता
२६ अगस्त, २०११
sahi hai............
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