सदियों पहले की आरम्भ
यात्रा अहम् और विनय ने
सत्य की खोज में
चुने मार्ग दोनों ने दो
लक्ष्यप्राप्ति को अपने
अहम् ने चुना प्रवृत्ति मार्ग
उसपर बढ़ा वो लगातार
उसकी गति थी बड़ी तेज़
होने को केंद्र से एकसार
केंद्र में एक बिन्दु है
उसकी प्राप्ति, ध्येय है
लक्ष्य से एकाकी होने को
उसने हर साथी को छोड़ा
मित्रों से हर नाता तोडा
किन्तु जो केंद्र है
वो बिन्दु है, अतिसुश्म है
हर बढ़ते कदम के साथ
होता है अहम् को ज्ञात
ये मार्ग है स्वार्थ का
यहाँ विचारों का केंद्र बिन्दु हूँ
मैं स्वयं, मेरा अहम्
हर पल, हर बढ़ता कदम
मेरे अहम् को तुष्ट करता
(स्वार्थ को संतुष्ट करता )
अंत में केंद्र को पाकर
उसे होता है आभास
केंद्र (बिन्दु ) की होती यही परिभाषा
इसको नहीं जा सकता मापा
संकुचन इसका स्वभाव है
इस मार्ग पर इसकी चाह है
इसे पाने की लालसा में
सबको छोड़ चलता अहम्
और अंत में इस संकुचन में
स्वयं समा जाता है
ना कोई प्रेयसी
ना किसी प्रीतम को पाता है
और केंद्र पर पहुँच
होता है जिससे वो एकाकी
वो है स्वयं
उसका अहम् अहम् अहम् |
विनय ने चुना मार्ग
ठीक उलट इसका
अपने स्थान से वो दूर जाता
विचारों की परिधि बढाता
घूमते तीर सा
अपनी सीमा बढाता
केंद्र से दूर जाता
हर पल, हर कदम
मोह जाल काटता
विचारों का केंद्र स्वयं को ना बनाता
हर पल अपना स्वार्थ त्यागता
(अपने अहम् को पल पल मारता )
प्रेम बाटता
मित्र बढाता
और जितना निवृत्ति मार्ग पर बढ़ता
उतना स्वयं को तुष्ट पाता
जितना केंद्र से दूर जाता
उतना अधिक आनंद पाता
गाँठ एक एक कर खुल जाती
भ्रम जाल कटता जाता
मोहपाश हटता जाता
अन्धकार के बादल फटते
उजियारे का सूरज पाता
इच्छाएँ अब विवश ना करती
डर को अपने निकट ना पाता
इस निवृत्ति मार्ग पर अपने
हर पल बढ़ता , प्रकाशपुंज पाता
सही गलत
सच झूठ
और भले बुरे में भेद न पाता
हर स्थिति में समरसता पाता
अब भी वो चलता जा रहा है
विनय वृत्त को बढ़ा रहा है
केंद्र (अहम्`) से दूर जा रहा है
अब उसे किसी की खोज नहीं
उसका अब सत्य यही |
-अंकिता
८ अगस्त २०१३
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