कल रात दो कब्रें आपस में बतिया रही थी !
जब इन इंसानों के अपने हो जाते हैं बेजान
यहाँ लाकर छोड़ जाते है
क्यों डरते है उनसे जिन्हें खुद ही दफ़न कर जाते है
अपनी यादों पर मिट्टी का कफ़न उड़ाकर
दोबारा उनसे नज़र मिलाने में कतराते हैं
तुम्हारे और मेरे ऊपर लगे पौधो में जो फूल खिले हैं
उनकी मासूम मुस्कराहट सबूत है इस बात का
की जिन्दगी इस कब्रिस्तान में भी बसती है
फिर राहगीर क्यों मुड़ जाता?
जाने इस रास्ते से गुजरने में क्यों घबराता है ?
कल रात दो कब्रें आपस में बतिया रही थी !
-अंकिता
२४ जुलाई २०११
No comments:
Post a Comment