Tuesday, May 4, 2021

बच्चों की लड़ाई

अरे देख वो बुड्ढे बाबा बेच रहे गुड़िया के बाल 

अरे नहीं वो तो है तोहफों के संग आते सांता क्लॉज़  | 


देख वहाँ बड़ी सी मछली छोटी को खाती 

अरे नहीं वो तो जैसे माँ छोटे को सुलाती | 


वो देख वहाँ है हाथी खड़ा, लम्बी सूँड उठाये 

नहीं वो है बड़ी सी लड़की, छोटी टहनी हिलाये | 


है कैसा तू अड़ियल, माने एक बात ना मेरी

छोड़ ना गर हुई देर तो फिर मारेगी अम्मा मेरी  | 


दोनों बच्चे भूल लड़ाई, उठा के बस्ता भागे 

जैसे मुर्गे की बाग पे अम्मा सुबह सबेरे जागे | 


अगले दिन वो फिर मिलेंगे , बैठेंगे, खेलेंगे , लड़ेंगे 

कल्पनाओ का बस्ता उलट, बादलों में नए चित्र उकेरेंगे |


-अंकिता 

मई ४, २०२१   



Sunday, May 2, 2021

नन्ही चिड़िया

 नन्ही चिड़िया 

चुनकर तिनके 

घांस फूंस से 

कटी पतंग की पड़ी डोर से 

नन्हा घोंसला बनाती   | 


चाहे तो चार दाने चावल के डाल दो 

नहीं तो मेहनत  कर  खुद चुन लाती 

घोसले से चीं चीं करते, चूजों के लिए  दाना लाती, 

उन्हें खिलाती 

उन्हें सुलाती   | 


सुबह सुर लगाती 

दिन में चहचहाती 

सड़क के शोर के बीच 

मधुर गीत सुनाती  


बच्चों को खिला 

उड़ना सिखा  

घोंसला छोड़ 

खुद भी उड़ जाती   | 


ना अतिक्रमण ना अधिकार जताती, 

नन्ही चिड़िया  | 


- अंकिता 

मई २, २०२१ 

Sunday, April 4, 2021

प्रेम की मौत

जिस धागे ने 

मुझे तुम्हे बाँधा था 


उसे खोजने मैं और तुम

नई  राह ढूंढते 

फर्श टटोलते 

मिट्टी  पर पैर पटक 

उड़ते धूल के गुबार में कहीं 

अमूर्त को कुछ क्षण के लिए  

मूर्त समझ 

कुछ पल ठहरते 

कि  शायद , कही पड़ा 

किसी कोने में लटका 

मिट्टी में धंसा 

फर्श में फँसा   

सड़ा, गला, छुपा 

किसी अवस्था में पा जाएं  


जिस धागे ने 

मुझे तुम्हे बाँधा था 


कल रात स्वप्न में 

उसके प्रेत की जीर्ण क्षीण काया को 

थका मांदा 

मैले कुचले, पैर समेटे 

कोने में दुबके 

सोते पाया 


-अंकिता 

अप्रैल ४ , २०२१ 

Wednesday, March 10, 2021

कोई घाव कुरेदे जाता है

वही झरोखा 

झीना पर्दा 

अँधियारा छा जाता है 

कोई घाव कुरेदे  जाता है 


वही सड़क 

कोई मोड़ सुनहरा 

दलदल पर रुक जाता है 

कोई घाव कुरेदे जाता है 


ज़र्रा ज़र्रा , 

पुर्ज़ा  पुर्ज़ा

गीत यही बस गाता है 

कोई घाव कुरेदे जाता है 


वही छैनी 

वही हथौड़ा 

घाव वही गहराता है 

कोई घाव कुरेदे जाता है 


-अंकिता 

मार्च १० , २०२१ 


Monday, June 15, 2020

घर

एक बड़ी सी जगह
उसमे छोटा सा घर
खुली सी छत
धूप  से उजला आँगन  |

एक छोटा कच्चा कमरा
पेड़ की झुरमुठ में घिरा
जिसकी दीवारों को हाथ से लीपू  ,
तुम्हारे संग सजाऊँ, कुछ चित्र उकेरूँ |

और उस कच्चे कमरे में होगा कुम्हार का चाक,
कोने में एक सुराही |
कुछ खुले से रंग
कुछ बिखरी किताबे |

उसकी खिड़की के पास होगी एक छोटी सी टेबल
उसपे रखे कुछ खाली पन्ने ,
जिनपर यथार्थ और कल्पनाओ  से टकराते हुए
कुछ शब्द सिमट जाएंगे, और कुछ टेबल पर बिखर जांएगे |

आँगन में रंगोली डाल ,
सबसे ऊँचे पेड़ पे बांधूंगी झूला |

कभी चिड़िया  बनाते बनाते जब वो हाथी में ढल जाएगी
तब बाहर लगे नल से मिट्टी में सने  हाथ धो लूंगी |

फिर शाम को सुकून से तुम्हारे संग बैठ
चाय की प्याली में गपशप उढ़ेलूँगी  |

-अंकिता
१५ जून , २०२०  

Saturday, May 30, 2020

~ ~ ईच्छा ~ ~

आज एक इच्छा जगी, एकदम नयी सी
उसमे रंग भरने का स्वप्न लेकर, मैं उठी
देहरी तक पहुंची ही थी की एक काला विषधर
दरवाज़े पर कुण्डी की तरह लिपटा था |

भय से मैं पलटकर, बिस्तर पर जा बैठी
सोचा कुछ देर आराम कर लूँ
दो घड़ी आँख लग जाए ,
और शायद वो सर्प कुण्डी से हट जाए |

स्वप्न में वो इच्छा मूर्त रूप में मेरे सामने खड़ी  थी
ख़ुशी से उछलकर उसे छूने को मैंने हाथ बढ़ाया,
छू पाती उस से पहले हमारे बीच उसी काले सर्प को फन फैलाया पाया |

पसीने से तरबतर, मैं उठी घबराकर
जाने कैसा दुःस्वप्न
कुछ समय बाद वो इच्छा धुंधली हो गयी
मेरे स्वप्न और कुण्डी पर बैठा वो सर्प  धीरे धीरे चला गया  |

उस दिन से वो इच्छा, मेरे घर के एक कोने में दुबक कर ,
आँख मींचे, चादर ओढ़े , पैर  सिमेटे सो गयी |

अब जब भी कोई इच्छा जगती है,
जिसके लिए देहलीज पार कर जाना होता है
तो हर बार वो सर्प जाने कहा से आकर कुण्डी पर लिपट जाता है,
और फिर मेरे स्वप्न में आकर डराता है |

फिर एक दिन मेरा घर सोती हुई इच्छाओं से भर गया |
मेरे चलने की जगह ही नहीं बची, तब झुंझलाकर मैं उठी |
फिर वही दरवाज़ा , वही कुण्डी और वो सर्प |

मेरा भय तो अब भी साथ ही चल रहा था ,
लेकिन इस बार वापस जाने की जगह ही नहीं बची थी ,
क्योकि उन सोती हुई इच्छाओं ने मेरे घर पर अपना डेरा बढ़ा लिया था |

काँपते  पैरो से मै  दरवाज़े की ओर बढ़ी
पसीने में तर बतर, डर  के मारे मेरी घिग्घी बंध |

वहाँ पहुंचकर खुद को छला सा पाती हूँ
सर्प के स्थान पर रस्सी को पाती हूँ |
वो रस्सी, जो धूल खाकर मोटी हुई, जाने कब से वहाँ लटकी है |

उस स्वनिर्मित भय की जैसे ही परत हटी ,
वो रस्सी  मैंने दरवाज़े से हटा फेंकी  | 

दरवाज़ा खुलते ही, एक एक कर उन इच्छाओ ने आँखें खोली, चादर समेटी ,
कोई मेरे घर के आँगन में मिट्टी , तो कोई पौधा बन , सींचने के इंतज़ार में मुस्कुरा उठी |

अब भी जब कोई ऐसी इच्छा होती है, जिसके लिए कोई देहलीज , कोई मुंडेर
या किसी संकरी गली को लांघकर जाना होता है
वो सर्प फन फैलाये अब भी मिलता है
बस अब मैं कोशिश करती हूँ की  साहस बटोर कर उस सर्प के पास जाऊं
और पता करू की असल में ये सर्प है
या फिर अधूरी इच्छाओं की गांठों से बंधी पड़ी कोई रस्सी |
-अंकिता

Sunday, May 24, 2020

टुकड़ा

 हाथ से वो टुकड़ा फिसला , सोचा खो गया
लेकिन वो तो दबा था, चाँद की परछाई में छिपा था |

सोचा सुबह आराम से ढूंढूंगी मिल जाएगा
पर नहीं मिला, अमावस की रात बड़ी लम्बी चली |

शायद वो परछाई का पर्दा टुकड़े पर नहीं आँखों पर पड़ा था,
क्योंकि ध्यान से देखा तो टुकड़ा अपनी जगह पर स्थिर खड़ा था |

वो टुकड़ा तो खुद में ही पूरा था,
जिसे चाँद समझा, वो तो सूरज था |

-अंकिता