मन करता है बोलूँ , चिल्लाऊं,
आवाज़ बाहर आना चाहती है मेरी;
पर कहाँ जाऊं?
कमरे मे ?
पर जोर से बोलूँ तो बंद दरवाज़ों के पीछे रहने वालो को तकलीफ होगी ,
छत पर जाऊं?
इन ऊँची इमारतो क़े बीच अब छत भी कहाँ है मेरी ,
और सड़क ?
वहां तो हॉर्न का शोर है , वो हर बार दबा देता है मेरी आवाज़ को
फेसबुक ,ट्विटर पर कुछ लिख आऊं ?
पर मुझे लिखना नहीं कुछ बोलना है
दोस्त ?
उन्हें वक़्त कहाँ है,
क्या जाऊं दरिया किनारे?
लेकिन एक दरिया का पानी सूख गया, दूसरे के ऊपर एक बड़ा सा ऑफिस बन गया है |
आज मैंने ड्रामा क्लास ज्वाइन कर ली है
वो बेसमेंट मे है
वहां कोई नहीं रोकेगा मुझे बोलने से ।
-अंकिता
मार्च ८, २०१५