Tuesday, October 25, 2011

घड़ी



पाठशाला के पहले दिन 
पहली कक्षा में कहा था गुरूजी ने 
" समय की रफ़्तार को पकड़ना 
समय के संग चलना हो तो घड़ी को साथ रखना "
उस दिन से आज तक मैं कभी तन्हा ना रही 
कोई संग हो या ना हो, ऐ घड़ी! तुम हमेशा साथ रही 
मैं हमेशा सोचती थी 
तुम्हारे चलने से होता है सूर्य अस्त , सूर्य उदित 
तुमसे कदमताल मिलाता 
चाँद घटता , कभी  खुद को बढ़ाता
तुम गुडाकेश हो 
दीवारों का अलंकरण हो 
दिन की सखी रात की संगिनी हो 
फिर एक दिन यूँ ही लटके हुए 
तुम चल बसी 
और फिर !
फिर कुछ नहीं 
वही सूर्यास्त वही सूर्य उदित 
वही चाँद वही हर ऋतु में बदलता तापमान 
और तो और 
मेरी दिनचर्या भी वही की वही 
जो नहीं है वो , मष्तिष्क पर छाई
तुम्हारी टिक टिक  की परछाई !

गुडाकेश = नींद को जितने वाला 

अंकिता
२५ अक्टूबर २०११

कड़ियाँ




तेज़ी से तरक्की करती तकनीक 
दावा करती तुम्हें और मुझे जोड़ने का 
वादा करती हमारे बीच की कड़ी बनने का 
लेकिन जब ये तकनीक ना थी 
तब भी तुम थे, मैं थी 
और हमारे बीच कोई कड़ी ना थी 
तुम्हें और मुझे जरुरत भी ना थी 
क्योकि कड़ियों से जुड़ने के लिए 
हमारे बीच फासले होना ज़रूरी हैं 
लेकिन अब हर दिन जुडती नई कड़ी 
हमारे बीच अपनी जगह बना रही है 
दिलों के बीच नजदीकियां  घटा रही हैं 

और जहाँ कड़ियाँ होती हैं 
वहां हमेशा मौजूद होता है , उनके टूटने का डर भी !!

अंकिता
२५ अक्टूबर २०११

Friday, October 14, 2011

खोये हुए पन्ने



ज़िन्दगी की किताब से  कुछ पन्ने खो गए 
एहसास बनकर अल्फ़ाज़ रह गए 

कुछ रंग आँखों से निकले आबे खां में 
धुल गए , कुछ गहरे हो गए 

वक़्त की स्याही से लिखे कुछ लम्हे 
निखर गए , कुछ फीके पड़ गए 

भीड़ के संग कदम मिलाने की धुन में 
रिश्तों के धनक से कुछ रंग खो गए 

कुछ दोस्त जो किताब पर ज़िन्दगी से सजे थे 
देखते ही देखते सिर्फ नाम रह गए 

शब्दों में जो जज़्बात  संजोये थे 
वक़्त के पर लगाकर उड़ गए 

धनक = इन्द्रधनुष 
आबे खां = बहता पानी 

 -अंकिता पाठक
१४ अक्टूबर २०११