जिस धागे ने
मुझे तुम्हे बाँधा था
उसे खोजने मैं और तुम
नई राह ढूंढते
फर्श टटोलते
मिट्टी पर पैर पटक
उड़ते धूल के गुबार में कहीं
अमूर्त को कुछ क्षण के लिए
मूर्त समझ
कुछ पल ठहरते
कि शायद , कही पड़ा
किसी कोने में लटका
मिट्टी में धंसा
फर्श में फँसा
सड़ा, गला, छुपा
किसी अवस्था में पा जाएं
जिस धागे ने
मुझे तुम्हे बाँधा था
कल रात स्वप्न में
उसके प्रेत की जीर्ण क्षीण काया को
थका मांदा
मैले कुचले, पैर समेटे
कोने में दुबके
सोते पाया
-अंकिता
अप्रैल ४ , २०२१